Rews news, आजादी आंदोलन के अमर योद्धा स्वर्गीय ओंकार नाथ खरे की 100 वीं जयंती की पावन स्मृति पर विशेषांक।
आजादी आंदोलन के अमर योद्धा स्वर्गीय ओंकार नाथ खरे का क्रांतिकारी योगदान: अभिषेक खरे।
विंध्य क्षेत्र क्रांतिकारियों की भूमि है , जिसमें अनेक वीर सपूतों ने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की परवाह न करते हुए त्याग बलिदान की महान परंपरा को कायम रखा। इन बहादुर सपूतों में एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व ओंकारनाथ खरे का हैं , जिन्होंने किशोरावस्था में ही देश की आजादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत के अन्यायी हस्तक्षेप के विरुद्ध चल रहे आंदोलन में युवा वर्ग का नेतृत्व करते हुए कठोर से कठोर सजा को वरण करके देश की आजादी के आंदोलन को गतिशील बनाने में ऐतिहासिक योगदान दिया ।
मध्यप्रदेश के सीधी जिले के सिहावल नामक स्थान में क्रांतिकारी ओंकारनाथ खरे का जन्म 1 जुलाई 1925 को हुआ था। तत्समय उनके पिताजी श्री मुन्नालाल खरे स्थानीय परमट चौकी में मुंशी के पद पर तैनात थे। शैशव काल में जब ओंकारनाथ मात्र 9 माह के थे तब उनकी मां स्वर्ग सिधार गईं। बड़े भाई श्री केदार नाथ खरे उनसे 5 साल बड़े थे। बचपन में ओंकार नाथ खरे का पालन पोषण उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के मंगरोही मंझनपुर (वर्तमान कौशांबी जिला) में हुआ। जहां उनकी मां की निकट रिश्तेदार श्रीमती भगवती खरे ने उन्हें मां की तरह लाड़ प्यार दिया। पिता श्री मुन्नालाल खरे ने कच्ची गृहस्थी संभालने के लिए पुनर्विवाह किया। एक भाई का जन्म और हुआ जिनका नाम गणेश प्रसाद खरे रखा गया . ओंकार नाथ खरे कुछ बड़े हुए तो अपने पिता के पास आ गए। रीवा शहर के तरहटी मोहल्ले में उनके पिताजी ने मकान खरीदा , जिसमें सभी रहने लगे।
सन 1942 में महात्मा गांधी एवं सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों के अत्याचारी हुकूमत के खिलाफ अपने अपने तरीके से देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। विंध्य क्षेत्र में तो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेने में ठाकुर रणमत सिंह ,श्याम शाह एवं उनके साथियों की शहादत काफी महत्वपूर्ण रही है। रीवा एक रियासत थी , जिस पर निगरानी के लिए अंग्रेजों ने एक पोलिटिकल एजेंट की नियुक्ति कर रखी थी। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के पहले अंग्रेजो के खिलाफ रीवा में विद्रोह का स्वर मुखर होने लगे थे। तत्कालीन महाराजा गुलाब सिंह का अंग्रेजों से टकराव चल रहा था। अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप को लेकर जन आक्रोश भी बढ़ता जा रहा था। इस दौरान रीवा में अंग्रेजों की मनमानी के खिलाफ जन आंदोलन चल पड़ा जिसमें कांग्रेस के नेताओं कार्यकर्ताओं ने भी बढ़कर चढ़कर हिस्सा लिया। स्थानीय स्तर पर पंडित शंभूनाथ शुक्ला , कप्तान अवधेश प्रताप सिंह , लाल यादवेंद्र सिंह आदि कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे।
सन 1942 के आजादी के आंदोलन के दौर में 17 वर्ष के ओंकार नाथ खरे अपने जोशीले व्यक्तित्व के चलते विंध्य क्षेत्र के युवा वर्ग में विशेष पहचान रखते थे। एक सत्याग्रही के रूप में ओंकारनाथ खरे ने अंग्रेजो के खिलाफ चल रहे आजादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई , उन्हें 38 डी आई आर के अंतर्गत नजरबंद बनाकर रीवा केंद्रीय कारागार में रखा गया। उन पर मुकदमा चला। देश की आजादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह के आरोप में उन्हें छः माह का कठोर कारावास एवं ₹150 का अर्थदंड दिया गया। अर्थदंड अदा न करने पर उनकी कठोर सजा की अवधि को 2 माह और बढ़ा दिया गया। श्री खरे ने जेल यातनाओं से कभी हार नहीं मानी। जेल में उन्हें आड़ा बेड़ी में रखकर शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया। इस दौरान उन्हें 31बेतों की बर्बर सजा भी सुनाई गई। नंगे बदन लगाई जाने वाली हर बेंत पर ओंकार नाथ खरे इंकलाब जिंदाबाद , भारत माता की जय और महात्मा गांधी जिंदाबाद का क्रांतिकारी उद्घोष करते रहे। किशोरावस्था में 21 बेंत लगने पर भी ओंकार नाथ खरे के इंकलाबी नारों के जोश में कमी नहीं थी लेकिन लहूलुहान शरीर ने साथ नहीं दिया और वह बेहोश हो गए। शेष दस बेंतों की सजा स्वास्थ्य कारणों के चलते रोक दी गई।
आजादी के आंदोलन के दौरान रीवा जेल में क्रांतिकारी जीवन व्यतीत कर ओंकार नाथ खरे जब बाहर आए तो उन्होंने अपनी अवरुद्ध पढ़ाई को फिर से शुरू किया । उनकी हिंदी संस्कृत उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी। छात्रों युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता अद्भुत थी। उनकी एक आवाज पर विंध्य क्षेत्र का नौजवान आंदोलित होता था । सन 1947 में वह सुखद पावन क्षण आया , जब 15 अगस्त को देश आजाद हुआ । श्री ओंकार नाथ खरे विंध्य क्षेत्र के इकलौते महाविद्यालय दरबार कॉलेज के छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर भारी बहुमत से विजयी हुए , उन्होंने प्रतिद्वंदी अर्जुन सिंह को शिकस्त दी थी जो आगे चलकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री , केंद्रीय मंत्री और पंजाब के राज्यपाल बने। श्री खरे की अध्यक्षता वाले छात्र संघ में श्रीनिवास तिवारी महासचिव चुने गए थे। छात्र संघ के उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में दरबार कॉलेज में अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन हुआ जिसमें बीएचयू के कुलपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन मुख्य अतिथि थे जो आगे चलकर भारत के राष्ट्रपति बने। ओंकारनाथ खरे विंध्य क्षेत्र के समाजवादी आंदोलन के आधार स्तंभ थे। उनके प्रमुख साथियों में कृष्ण पाल सिंह , जगदीश जोशी , श्रीनिवास तिवारी , राम किशोर शुक्ला , श्रवण कुमार भट्ट , शंकर लाल सक्सेना, सिद्धविनायक द्विवेदी , राणा शमशेर सिंह , यमुना प्रसाद शास्त्री , जगदंबा प्रसाद निगम , श्याम कार्तिक आदि अनेक महत्वपूर्ण हस्तियां थीं।
सन 1952 में शिवरात्रि के दिन मध्यप्रदेश के दमोह शहर में सेवा निवृत्ति डिप्टी डायरेक्टर लैंड रिकॉर्ड रामचंद्र खरे की ज्येष्ठ सुपुत्री उमा खरे से उनका विवाह संपन्न हुआ। 1953 में वे विंध्य प्रदेश प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हुए। सेवा काल के दौरान अपनी स्वतंत्र निर्भीक न्यायप्रिय कार्यशैली के चलते वे बड़े नौकरशाहों के प्रकोप का शिकार बने। करीब 30 वर्ष के शासकीय सेवा काल में उन्हें एक भी पदोन्नति नहीं मिली। उनकी दक्षता के विपरीत उनके आगे बढ़ने के अवसरों का जिस तरह हनन हुआ जिससे उन्हें गहरा आघात लग । देश के आजादी के आंदोलन के इस महान योद्धा के साथ मरणोपरांत न्याय भी नहीं हो सका। गत दो वर्ष पहले देश में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया गया लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों एवं उनके परिवारों के साथ पूरी उपेक्षा का माहौल बना हुआ है । उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर शासन प्रशासन में बैठे लोगों के द्वारा कभी दो फूल भी अर्पित नहीं किए गए। भारत सरकार के द्वारा सन 1972 में उन्हें ताम्रपत्र के सम्मानित किया गया लेकिन मध्यप्रदेश शासन का प्रशस्ति पत्र 50 वर्ष बाद भी उनके घर तक नहीं पहुंचा। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय खरे के बारे में जिलाध्यक्ष कार्यालय रीवा के द्वारा कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है जबकि ताम्रपत्रधारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय ओंकार नाथ खरे का नाम रीवा जिला कार्यालय की सूची क्रमांक 7 पर दर्ज है। भ्रष्ट नौकरशाही इस कदर हावी है कि इधर उनके वंशजों के प्रमाण पत्र भी जारी नहीं किए जा रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के महान योगदान के चलते देश को आजादी मिली जिसके चलते भारत के लोग आज शासन कर रहे हैं। जनता के बीच से लोग बड़े-बड़े पदों पर बैठे हैं लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति उनका आदर भाव महज दिखावा रह गया है।
उनके जीवन काल का अंतिम समय नरेंद्रनगर रीवा स्थित 2 एच 3 शासकीय आवास में व्यतीत हुआ। वहीं पर उनका स्वर्गवास 20 अक्टूबर 1990 को हुआ । 3 वर्ष पहले 2 अक्टूबर 2020 को उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उमा खरे का नेहरू नगर रीवा में 87 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हुआ। वर्तमान में उनकी ज्येष्ठ पुत्री श्रीमती ऊषा सक्सेना पत्नी स्वर्गीय श्याम मोहन सक्सेना भोपाल, ज्येष्ठ पुत्र श्री अजय खरे लोकतंत्र सेनानी रीवा, पुत्रवधू डॉ गायत्री खरे रीवा , मझली पुत्री श्रीमती माधुरी लाल पत्नी श्री ए बी लाल भोपाल , संझली पुत्री श्रीमती आभा श्रीवास्तव पत्नी स्वर्गीय राजीव श्रीवास्तव जबलपुर , श्रीमती शोभा सक्सेना पत्नी श्री विश्व मनोहर सक्सेना भोपाल, कनिष्ठ पुत्र अभय खरे शहडोल , नाती डॉक्टर सचेत सक्सेना , नतवधु डॉक्टर कनिका सक्सेना एवं नाती संचित सक्सेना आत्मज ऊषा सक्सेना , पौत्र अभिषेक खरे एवं पौत्रवधू श्रीमती अंजली पाण्डेय खरे , पौत्र अभिजीत खरे आत्मज अजय खरे , नाती शुभम श्रीवास्तव नातिन काजल श्रीवास्तव आत्मज आभा श्रीवास्तव एवं नाती दीप सक्सेना आत्मज शोभा सक्सेना उनकी पावन स्मृति के प्रतीक के रूप में मौजूद हैं ।
अभिषेक खरे (पौत्र) ,
पीएचडी शोध छात्र (इतिहास) ,
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा