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आलेख: शत्रुता बनाती है ज्ञानवान और बलवान, जमाने की कराती है सही पहचान, फिर भी निंदा आलोचना को पचाना सीखें।

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आलेख: शत्रुता बनाती है ज्ञानवान और बलवान, जमाने की कराती है सही पहचान, फिर भी निंदा आलोचना को पचाना सीखें।

 

मनुष्य के जीवन में जाने अनजाने, लोभ-लालच, ईर्ष्या-द्वेश य बुद्धि भ्रम होने से ही अपराध होता है अपराध कई तरह के होते हैं जिनमें चारित्रिक अपराध और हत्या जैसे अपराधों का दण्ड भोगना ही पड़ता है लेकिन कुछ ऐसे भी अपराध होते हैं जो मनुष्य अपनी मूर्खता, वहम और अहम, लोभ-मोह और बुद्धि- भ्रम होने से स्वयं निर्मित कर लेता है ऐसे अपराधों में शत्रुता का जन्म होता है लेकिन यह हमारे बुद्बिबल पर निर्भर करता है कि हम शत्रुता को किस मुकाम तक ले जाते हैं अगर हमारे अंदर इंसानियत के नाते अपने और दूसरों के भविष्य की तनिक भी चिंता होती है तब हम समस्या में समाधान ढूंढते हैं और समझौते की तरफ जाते हैं, और जब वहम और अहम, लोभ य फिर बदले की भावना हमारे अंदर घर कर गई है तो शत्रुता रास्ता चुनते हैं, और शत्रुता रूपी विनाशकारी पौधे को छल-कपट झूठ- फरेब की खाद डालकर सींचते हैं जो बर्बादी और विनाशकारी वृक्ष बन जाता है।

शत्रुता का सबसे बड़ा जीता जागता उदाहरण महाभारत है जहां स्वयं नारायण शांतिदूत बनकर गए और असफलता मिली हश्र क्या हुआ यह सभी को ज्ञात है अहंकार लोभ- क्रोध और ईर्षा-द्वेष ने अपने सगे संबंधियों तक को नहीं छोड़ा, ऐसी शत्रुता जिसमें अपनों ने अपनों का ही रक्त बहाया है सही मायने में देखा जाए तो ऐसे युद्ध में विजयीजश्न मनाने की विजेता की हिम्मत तनिक भी नहीं होती, जश्न तो वहीं मनाते हैं जो दोनों तरफ का हर हाल में विनाश देखना चाहते हैं।

“युद्ध” अगर “जर,जोरू, जमीन, से जुड़ा हैं तो यहां भी समझौते की गुंजाइश तब रहती है जब दोनों तरफ से सोच भविष्य की ऊंचाइयों पर झांककर खुद को और दूसरों को भी खुशहाल देखने की चाहत होती हैं लेकिन इसके लिए स्वयं अपने हृदय की गहराइयों में अपने गलती को भी झांकने का साहस और आत्म बल का होना जरूरी होता है जिस प्रकार से एक हाथ से ताली नहीं बजती उसी प्रकार शत्रुता का कारण भी कोई अकेला नहीं हो सकता समझदार व्यक्ति अपने आत्मा में बसे नारायण के विराट स्वरूप को पहचानने में देर नहीं करते और जब दूसरे व्यक्ति चाहे वह कितना भी बड़ा शत्रु क्यों न हो इंसानियत की नजर से देखना शुरू करता है तब दया – क्षमा का भाव अपने आप प्रकट हो जाता है।

मनुष्य का ईश्वरीय रूपी ज्ञान कहता है कि मनुष्य को अपनी निन्दा, आलोचना, उपहास और अपमान को सुनकर सहन कर लेना व्यक्ति की उच्च आध्यात्मिक अवस्था है, निंदा को वही सहन कर सकते हैं जिनका मस्तिष्क बहुत शांत और विशाल होता है, ह्रदय विराट होता है और जिनमें सहनशक्ति कूट-कूट कर भरी होती है महाभारत में कहा गया है कि,,,

जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव, येषां प्रसादात्सुविचक्षणोऽहम्।
“यदा-यदा मे विकृतिं लभन्ते, तदा-तदा मां प्रतिबोधयन्ति ।।

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अर्थात मेरे शत्रु सदा जीवित रहें जिनकी कृपा से मैं बहुत ज्ञानवान हो गया हूँ। जब-जब वे मेरी त्रुटियाँ देखते हैं, तब-तब मुझे जगाते हैं, शत्रुता से सतर्कता और स्वयं को मजबूत करने का मार्ग प्रशस्त होता है सही मायने में देखा जाए तो शत्रुता किसी शतरंज के खेल की तरह लगने लगती है लेकिन असल जिंदगी में और सतरंज के खेल में धरती-आसमान का फर्क होता है शत्रुता से प्राप्त ज्ञान रूपी अस्त्र-शस्त्र आगे भविष्य में व्यक्ति को सचेत ही नहीं सुरक्षित भी करता है जो आने वाली बाधाओं से बचने के काम आता है शत्रुता व्यक्ति को एक तरफ जहां ज्ञानवान और बलवान बनाती है तो वहीं धोखा खाने पर व्यक्ति का दिमाग ठीक रास्ते पर चलने लगता है लेकिन यह सब जब हद तक सीमित रहती है तभी तक मनुष्य का कल्याण होता है अन्यथा’ अति सर्वथा अंत की ओर ले जाती है,,

कहने का तात्पर्य यह हैं कि आलोचना और निन्दा को सहन करने का एक सबसे श्रेष्ठ तरीका है कि, अपनी निंदा सुनने पर यह विचार करें कि ये जो मेरी निंदा हो रही है उसमें कुछ भी बातें सत्य हैं या मिथ्या हों, यदि ये बातें सत्य हैं तो सत्य का क्या बुरा मानना जो प्रत्यक्ष है उसे प्रमाण की जरूरत नहीं , क्योंकि सत्य को तो सदा स्वीकार करना ही चाहिए। और यदि कही हुई बातें असत्य हैं तो उनका क्या बुरा मानना, क्योंकि वे तो असत्य ही हैं असत्य बात का क्या बुरा मानना।

भूल मनुष्य से होती ही है हर घटना के पीछे कोई कारण जरूर होता है घटना के पीछे कुछ मजबूरियां भी हो सकती है य फिर व्यक्ति की लालसा – व्यभिचार भी हो सकता है या फिर कठिनाइयों का सामना कर रहे व्यक्ति का दुर्भाग्य भी हो सकता है ईश्वर भी उन्हीं को कष्ट देता है जो कष्ट भोगने की क्षमता रखते हैं स्वयं जनित शत्रुता य मुसीबतों का हल स्वयं निकाला जा सकता है ‘राई को पहाड़ बना देना व्यक्ति की बहादुरी नहीं बल्कि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का विचार मात्र हैं” व्यक्ति को अपनी गलती पर वकील और दूसरों की गलती पर जज नहीं बनना चाहिए।

इस आलेख के माध्यम से हम हर उस व्यक्ति से अपना विचार साझा करना चाहते हैं कि जिसे ईश्वर ने बनाया है उसे बिगड़ने का आप स्वयं प्रयास न करें, व्यक्ति की गलतियों अच्छे बुरे कर्मों का फल ईश्वर जरूर देता है सब कुछ ईश्वर पर ही छोड़ देना चाहिए “बदले की भावना से हुई शत्रुता में स्वयं को पाप का भागीदार बनाने से मनुष्य को हर हाल में बचना चाहिए क्योंकि अति का अंत सदैव हुआ है, अंत करना ही है तो शत्रु का नहीं अपने मन की शत्रुता का कीजिए।

:- लेखक विमलेश त्रिपाठी, विराट वसुंधरा हिंदी दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं,’9826548444 पर आप भी अपने सम सामयिक लेख, जनहित लोकहित की खबरें भेजें हम प्रमुखता के साथ आपकी लेखनी को प्रकाशित करेंगे।

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