रीवा

टिकट , टिकट और केवल टिकट ,,, लेखक की आत्मकथा।

टिकट , टिकट और केवल टिकट ,,,

    बचपन से सुनते आ रहे हैं इसको मिल रही ,उसको मिलेगी जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई तब पता चला की यह टिकट सिनेमा, बस , रेल और प्लेन की नही है यह तो उस उम्मीदवारी की है जहां पर ये लोग टिकट लेकर हमारा भविष्य तय करने के लिए मरे जा रहे,,

    खैर हमें क्या हम तो इस दौड़ से कोसो दूर थे है और रहेंगे कभी कभी सोचता हूं जीवन में नशा भी व्यक्ति को बहुत कुछ करने में मजबूर कर देता है।

    यह भी एक प्रकार का नशा ही है लोग अपना जीवन लगा देते है और न जाने क्या क्या करना पड़ता है हमारे क्षेत्र में किसी का निधन हो गया हो तो उसके अंतिम संस्कार में जाना ,अंतिम संस्कार में नही पहुंच पाए तो एकादशाह य फिर तेरहवीं के दिन पहुंचना तो है ही साथ में facebook में पोस्ट करना अनिवार्य है नही तो मृतक की आत्मा भटकती रह जाएगी उस मृतक की आत्मा की मुक्ति के लिए नेता जी का सफेद कुर्ते में होना जरूरी होता है,,,

    फिर भोपाल दिल्ली तो है ही जाना ही है बड़े नेताओं के साथ फोटो लेकर फेसबुक में पोस्ट करने से स्वयं धन्य हो जाते है।
फिर शहर में कोई नेता आया तो कटआउट्स और होल्डिंग लगानी ही है कितना काम किया , कितना संघर्ष किया अब विकास करना चाहते है लेकिन पार्टी टिकट नहीं दे रही है मोटरसाइकिल से स्कॉर्पियो तक और फिर फॉर्च्यूनर तक का विकास, किसी कदर हो भी गया तो अभी भोपाल में घर दिल्ली में घर फॉर्महाउस ,वेयरहाउस तो रह ही गया कितना विकास रह गया और पार्टी ने टिकट नहीं दिया,,

    टिकट की दौड़ में शामिल नेताजी सोच रहे हैं कि अब और विकास हो तो हो कैसे, मेरे पास तो मेरा विकास है जो बचपन से हो रहा है तब भी बड़ा दुर्भाग्य है टिकट का सुख मेरे सुख ने कभी नहीं रहा लेकिन फलाने की क्या-? सेटिंग है प्रभु टिकट हमें नहीं फलाने को ही मिलता है जबकि खुद के लिए विकास मैंने और उनने दोनों ने किया लेकिन टिकट,,

    एक कांड तो मेरे धोबी ने भी कर दिया कल शाम को कपड़े लेने गया तो बोला कुर्ते बना दिए है मैने कहा स्कूल कुर्ते पहन के नही जाता तो बोला अरे भैया इस समय कुर्ते लोग अधिक लेकर आते है तो मैने सोचा आपके भी कुर्ते ही बना दूं , दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य राकेश ने मेरे कुर्ते बना दिए खैर किसी प्रकार का टिकट तो मेरे पास है नही की रेल की ही यात्रा कर लूं,,

अमित गौतम “ऋषि “रीवा

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